ध्यान: मन से परे की अवस्था
                    
                    
                        
                        31 Oct 2017,
                        
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                        -आनंदमूर्ति गुरुमां- जीवन थोड़ा है, इस बात का एहसास तो सिर्फ किसी साधक को ही हो सकता है, और किसी को नहीं। साधक जानता है कि देहभाव से ऊपर उठ कर आत्मभाव की मंजिल तक पहुंचने के लिए एक जन्म बहुत थोड़ा है। कोई जितना मर्जी पढ़-सुन ले, पर उस ज्ञान को अपने जीवन में भी तो उतारना चाहिए। मनुष्य तब तक समय की बरबादी करता रहता है, जब तक ज्ञान के वचनों को नहीं सुन पाता। उसे पता ही नहीं होता कि यह भी कोई मार्ग है। ईश्वर की कृपा से अगर सद्गुरु की वाणी सुनने को मिली, सत्संग की प्राप्ति हुई तो फिर सत्संग के जरिये उसे अपने ध्येय की, लक्ष्य की जान-पहचान होती है। हालांकि लक्ष्य को जान लेना ही लक्ष्य तक पहुंच जाना नहीं है। लक्ष्य को जान लेने के बाद उस मार्ग पर चलने की भी जरूरत होती है। इसके लिए सबसे आसान विधि है अपने ही श्वास को देखने की। जो साधारण श्वास चल रही है, उसे न बदलने की जरूरत है, न गहरा करने की, न तेज करने की और न रोकने की। कुछ भी नहीं करना है। हालांकि इस तरह श्वास को पकड़ने में भी कइयों को दिक्कत हो जाती है। उन्हें समझ ही नहीं आता कि श्वास को देखना किसे कहते हैं। तो दूसरा काम आप कर सकते हैं कि अपने ही शरीर को द्रष्टा भाव से देखें। शरीर चल रहा है तो पैरों और हाथों के हिलने का पूरी तरह पता चले। सजग होकर देखें कि शरीर कैसे हिल रहा है। पलकें झपकी जा रही हैं, पर क्या आप पलकों को झपकते हुए देख पाते हो? महसूस कर पाते हो? बात बहुत छोटी-सी है, करना तो कुछ भी नहीं है इसमें। लोगों को लगता है कि भगवान का नाम जपो तो भगवान मिलेंगे। पर यहां मैं भगवान के नाम की तो बात ही नहीं कर रही हूं। कभी श्वास को देखने की बात करती हूं, कभी शरीर को देखने की तो कभी मन को देखने की। मैं तो यह सिखाना चाहती हूं कि नाम जिस नामी का है, उस नामी तक, उस परमात्मा तक तुम सीधे कैसे पहुंच सको। मन तो बहुत सारे झांसे देता रहता है। उनमें से यह भी एक झांसा होता है कि वह जल्दी बोर होकर कहने लगता है कि श्वास को क्या देखना! श्वास को भीतर-बाहर आते-जाते हुए कब तक देखते रहें! असल में मन बोर नहीं हो रहा होता, मन अपने आपको बचाने का एक उपाय करने लगता है। वह तुम्हारा ध्यान श्वासों से हटाना चाहता है, क्योंकि वह जानता है कि तुम सजग होकर श्वासों को देखने लग जाओगे तो उसका अस्तित्व ही खतरे में आ जाएगा। मन को ध्यान में लगाना नहीं है। मन को लगाना तो बड़ा आसान काम है। संकीर्तन में तो लोगों को बड़ा रस आता है, लेकिन संकीर्तन में तुम अपने मन की चालाकियों को नहीं पकड़ पाते। किसी भी मंत्र द्वारा किए गए कीर्तन या नाम स्मरण का असल मजा तो तब आता है, जब उस मंत्र को करते-करते मंत्र भी टूट जाता है और उसी शांत भाव में साधक साक्षी अवस्था में पहुंच जाता है। फिर इसी साक्षित्व में अपने मन को वह ठीक से जान पाता है। जब तक कीर्तन या नाम स्मरण चल रहा होता है, तब तक तुम्हारा मन उसमें व्यस्त रहता है, क्योंकि मन है तो ही तो गाओगे, मन है तो ही तो बोलोगे। मानसिक जप भी तो तुम्हारा मन ही करता है। मतलब कीर्तन में तो तुम्हारा मन मौजूद ही रहता है। फिर ध्यान किसे कहते हैं? ध्यान उस स्थिति को कहते हैं, जिस स्थिति में तुम मन से परे हो जाते हो, जहां तुम अपना मन और मन के विचारों को हटा देते हो। फिर पीछे बचती है सजगता और होश।