मौन प्रार्थना में विचार प्रधान होता है
                    
                    
                        
                        20 Jan 2018,
                        
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                        साधक शांत मुद्रा में आंख बंद करके बैठ जाए और ईश्वर के दिव्य प्रकाश का स्मरण करे तो उसको अनंत अंतरिक्ष में विशाल प्रकाश पुंज दिखाई पड़ेगा। दोनों हाथ ऊपर की ओर उठाकर मन को नियंत्रित करके उस दिव्य आलोक में प्रवेश करने का प्रयास करें। भागते हुए मन को उस प्रकाश के केंद्र में स्थिर करें, यहीं से मौन प्रार्थना होती है। मौन प्रार्थना का अर्थ है अपने सकारात्मक विचारों को एकत्र कर किसी दिव्यप्रकाश युक्त बिंदु पर स्थिर करना। अपने विचारों को क्रियात्मक बनाते हुए अपने आत्मकल्याण की ओर प्रेरित करें। प्रार्थना में सबसे महत्वपूर्ण है आपका सकारात्मक विचार। मनुष्य किस भाव से, किस कारण से, किस कामना की सिद्धि के लिए मंदिर में बैठा है वह सब परमात्मा समझता है। वह बनावटी भाषा या शास्त्रज्ञान सुनकर प्रभावित नहीं होता।
मौन प्रार्थना में विचार प्रधान होता है। वहां कोई भाषा नहीं होती। केवल विचार होता है और आज विज्ञान भी मानने लगा है कि विचार से पदार्थ प्रभावित हो सकता है। महानतम वैज्ञानिक आइंस्टीन कहते हैं कि जिस प्रकार पदार्थ के अणु होते हैं उसी प्रकार विचार के भी अणु होते हैं। अगर पदार्थ के अणु जीवंत हैं तो विचार के भी अणु जीवंत होते हैं। हम जल में पत्थर फेंकते हैं तो तरंग उठती है, उसी प्रकार जब हम किसी विषय पर विचार करते हैं तो वहां भी तरंग उठती है। यह तरंग पूरे वातावरण में उठती है।
विचार करते ही वातावरण में जो तरंग उठती है, वह अनंत दिशाओं तक फैल जाती है, क्योंकि विचार अणु के समान स्थूल नहीं सूक्ष्म है और सूक्ष्म की कोई सीमा नहीं होती। विचार ऊर्जा है और ऊर्जा का कभी नाश नहीं होता। केवल उसका रूप बदल जाता है। शायद इसीलिए संतों के आश्रम के चारों ओर इसी सकारात्मक ऊर्जा का क्षेत्र बना रहता है और मनुष्य जब उस वातावरण में प्रवेश करता है तो सकारात्मक ऊर्जा से मनुष्य स्वयं प्रभावित होने लगता है। अकस्मात उसे महसूस होने लगता है कि उसके अशांत मन को यहां बड़ी शांति मिल रही है। इसका वैज्ञानिक कारण है कि मनुष्य जब उस क्षेत्र में प्रवेश करता है तो वहां के वातावरण का प्रभाव उसके शरीर पर पड़ने लगता है और अचानक उसके शरीर में जैविक परिवर्तन होने लगते हैं।